करवा चौथ की पूरी कहानी – वीरावती और माता पार्वती की प्रेरणादायक कथा
करवा चौथ की पूरी कहानी – वीरावती और माता पार्वती की प्रेरणादायक कथा।
बहुत समय पहले की बात है, एक साहूकार के सात बेटे और एक प्यारी सी बेटी थी जिसका नाम था वीरावती। वह अपने भाइयों की लाडली और माता-पिता की आँखों का तारा थी। जब वीरावती की शादी हुई, तो उसके पहले करवा चौथ का व्रत आया।
उस दिन वीरावती ने पूरे विधि-विधान से व्रत रखा न खाना, न पानी। लेकिन दिन भर भूखी-प्यासी रहने के कारण शाम तक उसे बहुत कमजोरी महसूस होने लगी। वह बार-बार चक्कर खा रही थी, पर व्रत तोड़ना नहीं चाहती थी क्योंकि उसने चाँद देखे बिना अन्न-जल ग्रहण न करने का संकल्प लिया था।
वीरावती के भाई अपनी बहन को इतना कष्ट में नहीं देख पा रहे थे। उन्होंने सोचा अगर चाँद जल्दी निकल आए तो बहन कुछ खा ले। इसलिए उन्होंने एक पीपल के पेड़ के पीछे चलनी में दीपक रखकर ऐसा दृश्य बनाया मानो चाँद निकल आया हो।
भाई बोले, बहन, देखो चाँद निकल आया है।
वीरावती ने चलनी से देखा, और चाँद समझकर व्रत तोड़ दिया पानी पिया, खाना खाया।
लेकिन जैसे ही उसने पहला कौर खाया, उसे बुरा समाचार मिला उसके पति की मृत्यु हो गई है। वीरावती दुख से बिलख उठी। वह रोती हुई देवी-देवताओं के मंदिरों में गई और अपने अपराध के लिए क्षमा माँगी।
तभी माता पार्वती उसके सामने प्रकट हुईं और बोलीं
वीरावती, तुम्हारे भाइयों की छल के कारण यह अनिष्ट हुआ है। अब तुम पूरे वर्ष हर मास शिव-पार्वती की पूजा करो और आने वाले करवा चौथ पर पूरे नियम से व्रत रखो, तब तुम्हारे पति जीवित हो जाएंगे।
वीरावती ने माता पार्वती के बताए अनुसार व्रत किया पूरे नियम और श्रद्धा से। अगले करवा चौथ के दिन माता पार्वती प्रसन्न हुईं और उसे सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दिया। उसी क्षण उसका पति जीवित हो गया।
तब से हर वर्ष महिलाएँ अपने पति की दीर्घ आयु, सुख-समृद्धि और अखंड सौभाग्य के लिए करवा चौथ का व्रत करती हैं।
करवा चौथ व्रत का इतिहास और महत्व
करवा चौथ भारत का एक अत्यंत पवित्र और लोकप्रिय व्रत है, जिसे सुहागिन स्त्रियाँ अपने पति की दीर्घायु, सुख-समृद्धि और अखंड सौभाग्य की कामना से रखती हैं। यह व्रत हिंदू पंचांग के अनुसार कार्तिक माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाया जाता है।
करवा चौथ का इतिहास (इतिहासिक और पौराणिक कथा)
करवा चौथ व्रत की कई पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं, जिनमें से सबसे प्रसिद्ध कथा है “वीरवती” की।
वीरवती की कथा
प्राचीन काल में एक सुंदर और स्नेही राजकुमारी थी वीरवती। वह सात भाइयों की एकमात्र बहन थी। विवाह के बाद अपने पहले करवाचौथ पर वह मायके आई और व्रत रखा।
सारा दिन बिना अन्न-जल के वह अपने पति की दीर्घायु के लिए व्रत रखती रही, लेकिन शाम होते-होते वह बहुत कमजोर हो गई।
उसके भाइयों से बहन की तकलीफ़ देखी नहीं गई। उन्होंने पास के पीपल के पेड़ में एक दीपक जलाकर छल से चाँद जैसा दिखाया और कहा, “बहन, चाँद निकल आया है, व्रत खोल लो।
वीरवती ने भाइयों की बात मान ली और व्रत तोड़ दिया। लेकिन जैसे ही उसने पहला निवाला खाया, उसे अपने पति की मृत्यु का समाचार मिला।
वह दुखी होकर विलाप करने लगी और रास्ते में देवी पार्वती जी का दर्शन हुआ। पार्वती जी ने उसे बताया कि यह सब व्रत अधूरा छोड़ने के कारण हुआ है। उन्होंने उसे अगले साल पूरे विधि-विधान से करवाचौथ का व्रत रखने को कहा।
वीरवती ने वैसा ही किया और उसकी भक्ति से उसका पति पुनः जीवित हो गया।
तभी से यह व्रत अखंड सौभाग्य के प्रतीक के रूप में मनाया जाने लगा।
“करवा चौथ” नाम का अर्थ
“करवा” का अर्थ है मिट्टी का छोटा घड़ा, जिसमें जल रखा जाता है।
“चौथ” का अर्थ है चतुर्थी तिथि।
व्रत के दिन महिलाएँ करवे (घड़े) में जल भरकर चंद्रमा को अर्घ्य देती हैं और पति की लंबी उम्र की कामना करती हैं।
प्राचीन परंपराओं से जुड़ाव
ऐसा भी माना जाता है कि यह व्रत प्राचीन काल में महिलाओं के बीच आपसी सौहार्द और एकता का प्रतीक था। युद्ध के समय पुरुष दूर रहते थे, तब स्त्रियाँ एक-दूसरे की सुरक्षा और कल्याण की कामना करती थीं। करवा चौथ उन स्त्रियों के बंधन का पर्व बन गया।
करवा चौथ का आज का महत्व
आज भी महिलाएँ सुबह सर्गी (सास द्वारा दिया गया भोजन) खाकर व्रत प्रारंभ करती हैं, दिनभर निर्जला उपवास रखती हैं और शाम को चाँद देखकर पति के हाथों से जल पीकर व्रत पूरा करती हैं।
यह दिन प्यार, विश्वास और आस्था का प्रतीक बन चुका है।
देखें .
Post a Comment